मौलिक अधिकार// Fundamental Rights


मौलिक अधिकार// Fundamental Rights

किसी भी लोकतांत्रिक देश का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के व्यक्तित्व का उच्चतम विकास करना है और ऐसा करने के लिए आवश्यक है उन्हें अधिक से अधिक अधिकार व सुविधाएं दी जाएं।

मौलिक अधिकार// Fundamental Rights
Fundamental Rights


भारत में अधिकारों की उत्पत्ति


सर्वप्रथम लास्की अपने अधिकारों की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया था। जहां तक भारत का संबंध है कि पहली बार भारतीय संविधान बिल 1895 मैं अधिकारों की मांग की गई। इसके बाद 1917 और 1919 में कांग्रेस ने कई प्रस्ताव पारित किए और अंग्रेजों के समान नागरिक अधिकार  की मांग की। श्रीमती एनी बेसेंट ने भारत के कॉमनवेल्थ बिल,1925 के माध्यम से और मोतीलाल नेहरु समिति की अपनी रिपोर्ट,1928 मैं सिफारिश की कि भारतीयों को कुछ विशेष मौलिक अधिकार दिए जाएं। परंतु साइमन आयोग,1930 ने इन्हें स्वीकार नहीं किया।
इसके पश्चात कांग्रेस ने अपने कराची सत्र ,1930 मैं और गांधी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में इन अधिकारों की पुनः मांग की। द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरू होते ही सभी बड़े कांग्रेस नेताओं को जेल में डाल दिया गया। इसके बाद 1945 में 'सपरू रिपोर्टप्रकाशित हुई जिसमें सिफ़ारिश की गई कि भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों को शामिल कर लिया जाए। इसके बाद संविधान सभा ने मौलिक एवं अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में सिफारिश देने के लिए एक सलाहकार समिति का गठन किया गया जिसमें अध्यक्ष सरदार पटेल थे। इस नीति ने एक उपसमिति का गठन किया। जिसके अध्यक्ष जे बी कृपलानी थे। इस समिति द्वारा अधिकारों की सूची तैयार करते समय अमेरिका के 'अधिकार पत्रका विस्तारपूर्वक वर्णन किया।इसी कारण भारत के संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार है अमेरिका के अधिकारों से काफी मिलते-जुलते हैं।

मौलिक अधिकार


भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का वर्णन इसके तीसरे भाग मे धारा 12 से 35 तक किया गया है।  विभिन्न संवैधानिक संशोधनों के परिणाम स्वरूप इनमें अन्य उपधाराएं भी जोड़ी गई है। 44 वें संशोधन द्वारा धारा 31 को निकाल दिया गया है जो निजी संपत्ति के अधिकार से संबंधित थी। इस प्रकार 7 की बजाय 6 मूल अधिकार बाकी बचे हैं जो इस प्रकार हैं:-

1. समानता का अधिकार (12-35 तक)

2. स्वतंत्रता का अधिकार (धारा 19-22 तक)
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (धारा 23 से 24 तक)
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (धारा 25 से 28 तक)
5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधित अधिकार (धारा 29 से 30 तक)
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (धारा 32)


समानता का अधिकार (धारा 14 से 18 तक) 


इस अधिकार के माध्यम से भारतीय सीमा में रह रहे सभी व्यक्तियों को कानून के सामने समान माना गया है।  इसकी उत्पत्ति इंग्लैंड में हुई जिसका अर्थ है कि किसी को विशेष अधिकार न देना। भारत ने अधिकार आयरलैंड के संविधान से लिया है।

धारा 14 के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए भारत के उच्चतम न्यायालय में निम्न सिद्धांतों की स्थापना की गई है:-
1. सम्मान सुरक्षा का अर्थ है कि समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार किया जाए समान कानून लागू हो।
2.कानून बनाने के लिए राज्य तर्क संगत श्रेणी बना सकता है।
3.कानून को चुनौती देने वाले का उत्तरदायित्व है कि वह प्रमाण सहित साबित करें।

धारा 15 के तहत सामाजिक भेदभाव करने की मनाही की गई है।

धारा 16 के अनुसार सरकारी नौकरियों में सभी के लिए समान अवसर होंगे परंतु सरकार निवास संबंधी शर्तें लगा सकती हैं। पिछड़े वर्ग के लिए स्थान आरक्षित रख सकती है।

धारा 17 में अस्पृश्यता को समाप्त करने का प्रावधान रखा गया है। किसी भी व्यक्ति को व्यक्ति समझाना या व्यवहार करना कानूनी अपराध है। इसीलिए 1955 मैं छुआछूत अपराध अधिनियम पास किया गया जिसके तहत ऐसे अपराध करने वाले व्यक्ति को 6 महीने का कारावास या 500 का जुर्माना हो सकता है। 1976 में इसे संशोधित करके इन प्रावधानों को और कडा बना दिया गया और इस अधिनियम का नाम बदलकर नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम रखा गया है। दंड प्राप्त व्यक्ति कोई भी चुनाव लड़ने के अयोग्य माना जाता है।

धारा 18  के तहत उपाधियों का उन्मूलन कर दिया गया है ताकि जनता में कृत्रिम भेदभाव फैलाने की परिस्थितियों के ऊपर अंकुश रहे।

धारा 18 (1) के अनुसार सेना या विद्या संबंधी उपाधि के सिवाय और कोई किताब राज्य प्रदान नहीं करेगा।
18(2) के अनुसार भारत का नागरिक किसी विदेशी राज्य से खिताब प्राप्त नहीं करेगा।
18(3) में प्रावधान है कि कोई भी विदेशी व्यक्ति जो भारत में किसी लाभ या विश्वास पद पर नियुक्त है,भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना कोई उपाधि प्राप्त नहीं करेगा।

स्वतंत्रता का अधिकार (धारा 19-22)


19 का अनुच्छेद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके तहत निम्नलिखित व्यक्ति स्वतंत्रतां का वर्णन है।
1. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
2. सभा कराने की स्वतंत्रता।
3. संघ बनाने की स्वतंत्रता।
4. भ्रमण करने की स्वतंत्रता।
5. आवास की स्वतंत्रता।
6. व्यापारव्यवसायपेशा करने की स्वतंत्रता।

सातवीं स्वतंत्रता जो संपत्ति के अधिकार से संबंधित थी उसे 44 वें संविधान संशोधन द्वारा 1978 में निरस्त कर दिया गया।

धारा 20 के तहत अपराध की दोष सिद्धि के विषय में सरक्षण दिया गया है।
1.किसी भी व्यक्ति को किसी भी अपराध के लिए तब तक दंड नहीं दिया जा सकता तब तक यह सिद्ध नहीं किया जाए कि अपराध करते समय किसी प्रचलित कानून का उल्लंघन किया गया है।
2.अपराध करने वाले व्यक्ति को इतने से अधिक दंड नहीं दिया जाए जो अपराध करने के समय कानून के अधीन प्रावधान है।
3. कोई भी व्यक्ति एक ही अपराध के लिए 1 बार से अधिक दंडित नहीं किया जा सकता।

धारा 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन की सुरक्षा का प्रावधान हैं। किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण और दैहिक स्वाधीनता से वंचित नहीं किया जा सकता।

धारा 22 में बन्दी करण तथा नजरबंदी से बचाव की व्यवस्था की गई है। इसके अंतर्गत बंदी व्यक्ति को कुछ संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं जैसे:-
1. किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण से यथाशीघ्र अवगत किए बिना बंदी बनाकर नहीं रखा जा सकता है।
2. उसे अपनी पसंद के वकील से परामर्श करने तथा उससे अपने पक्ष की सफाई दिलवाने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।
3.उसे गिरफ्तारी के समय 24 घंटे के अंदर नजदीक के न्यायालय के सामने पेश किया जाएगा।
4. उसे न्यायालय की आज्ञा के बिना 24 घंटे से अधिक रात में नहीं रखा जाएगा।

परंतु यह अधिकार उन बंदियों पर लागू नहीं होते जो विदेशी शत्रु राष्ट्र के साथ मिले हुए हैं और जिन्हें निवारक नजरबंदी के तहत गिरफ्तार किया गया है।

धारा 23 के तहत सभी प्रकार के श्रम और व्यक्तियों की खरीद को निषेध किया गया है। किसी भी व्यक्ति से उसकी इच्छा के अनुसार कार्य करवाने की मनाही है।

धारा 24 के तहत 14 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों को किसी भी कारखाने या खान में नौकर ने रखने और किसी भी अन्य संकटमय में नौकरी में ना लगाने का प्रावधान है।

धर्म स्वतंत्रता का अधिकार (25-25)

धारा 25 के तहत अंतकरण तथा धर्म को आबाद रूप से माननेआचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई है। परंतु राज्य किसी भी धर्म को मानव बलि देने की आज्ञा नहीं दे सकता।

धारा 26 के तहत धार्मिक मामलों का प्रबंध करने की स्वतंत्रता दी गई है परंतु ऐसा करते समय सार्वजनिक व्यवस्था नैतिकता तथा स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाए।

धारा 27 में किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर अदा करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिसको इकट्ठा करके किसी भी धर्म के विकास एवं संचालन हेतु  किया जाए।

धारा 28 में सरकारी शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर रोक का प्रावधान है।

सांस्कृतिक और शिक्षा संबंधित अधिकार (29-30)


इसके तहत अल्पसंख्यकों को हितों के संरक्षण तथा शिक्षा संस्थान स्थापित करने का मूल अधिकार प्रदान किया गया है।

धारा 29 के तहत अल्पसंख्यक नागरिकों के सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक हितों के संरक्षण की दो व्यवस्थाएं हैं।
1. भारत के राज्य चित्र अथवा उसके किसी विभाग के निवासी नागरिकों को अपनी विशेष भाषा ली पिया सांस्कृतिक बनाए रखने का अधिकार है।
2.राज्य द्वारा घोषित या राज्य निधि से सहायता पाने वाले किसी भी शिक्षा संस्थान में प्रवेश में धर्म,मूल,वंश,जाति,भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।

धारा 23 शिक्षा संस्थानों की स्थापना एवं संचालन में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में  व्यवस्थाएं करती है:-
1.धर्म या भाषा पर आधारित अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के शिक्षा संस्थानों की स्थापना और संचालन का अधिकार होगा।
2.शिक्षा संस्थानों को सहायता देते समय सरकार किसी भी संस्था से धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं
करेगी


संवैधानिक उपचारों का अधिकार(32-35)


यह भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण अंग है। अंबेडकर ने इस अधिकार को संविधान की आत्मा तथा हदय बताया है और इसके बिना सविधान सुनना हो जाएगा। यह अधिकार मौलिक अधिकारों के परिवर्तन की बात करता है।देश का कोई भी नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में धारा 226 के तहत राज्यों के न्यायालय में इसे चुनौती दे सकता है। जो इस प्रकार हैं।
1. बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका
2. परमादेश याचिका
3. प्रतिषेद याचिका
4. अधिकार-पृच्छा याचिका
5. उत्पेषण याचिका

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका- इसका का शाब्दिक अर्थ है कि बंदी बनाए गए व्यक्ति को न्यायालय में पेश करना ताकि कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से उसके मामलों का निपटारा किया जा सके। ऐसा हिरासत में लेने के 24 घंटे के अंदर किया जाना चाहिए वरना यह अवैध  माना जाएगा।

2. परमादेश याचिका-इसका अर्थ है कि किसी अधिकारी को कुछ करने का आदेश देना। यह आदेश उच्चतम न्यायालय अथवा न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है। उदाहरणतया यदि किसी व्यक्ति को सभी योग्यताएं पूरी करने पर भर्ती कर लिया गया है तो उसे नियुक्त पत्र दिया जाना चाहिए। यदि संबंधित अधिकारी ऐसा नहीं करता तो वह व्यक्ति इस याचिका के माध्यम से न्यायालय में जा सकता है।

3.प्रतिषेद याचिका:-इसका अर्थ है रोकना अथवा मनाही करना। या याचिका उच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय द्वारा निम्न यादव को जारी की जाती है कि वह अमुक मामले की कार्यवाही बंद कर जो उसके क्षेत्राधिकार के बाहर है।

4.अधिकार-पृच्छा याचिका:-इसका अर्थ है किसके आदेश से अथवा किस अधिकार थे इसके तहत न्यायालय की इस बात की जांच करता है कि कोई भी व्यक्ति किसी सरकारी पद पर अवैध रूप से नहीं बैठा है। यदि ऐसा है तो वह वहां से हटाया जा सकता है।

5.उत्पेषण याचिका:-इसका अर्थ है अच्छी प्रकार सूचित करें।यह आदेश वरिष्ठ न्यायालय द्वारा न्यायालय को देता है कि वह किसी अमुक अभियोग को हस्तांतरित करें। ऐसा क्षेत्राधिकार की कमी और दुरुपयोग के मामले में किया जा सकता है।

धारा 33 सेना के सदस्यों के प्रति और धारा 34 मार्शल लॉ लागू होने की स्थिति मैं धारा 32 के अपवाद है। धारा 35 में संविधान के मूल्य अधिकारों वाले भाग-के उपबन्धो को प्रभावी करने के लिए प्रधान का वर्णन किया गया है।


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